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सम्पूर्ण रामायण - युद्धकाण्ड (24) विभीषण का राज्याभिषेक

अपने समक्ष सीता को विनयपूर्वक नतमस्तक खड़ा देख रामचन्द्र जी बोले, भद्रे! रावण से तुम्हें मुक्त कर के मैंने स्वयं के ऊपर लगे कलंक को धो डाला है। शत्रुजनित अपमान और शत्रु दोनों को ही एक साथ मैंने नष्ट कर डाला है। इस समय अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करके मैं उसके भार से मुक्त हो गया हूँ। युद्ध का यन परिश्रम मैंने तुम्हें पाने के लिये नहीं किया है बल्कि वह केवल सदाचार की रक्षा और फैले हुये अपवाद का निराकरण करने के लिये किया गया है। तुम्हारे चरित्र में सन्देह का अवसर उपस्थित है, इसलिये आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ रही हो। अतः हे जनककुमारी! मैं तुम्हें अनुमति प्रदान करता हूँ कि तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। रावण तुम्हें अपनी गोद में उठाकर ले गया और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है। ऐसी दशा में मैं फिर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? मेरा यह निश्चित विचार है। 

 अपने पति के ये वचन सुनकर सीता के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। वह बोली, वीर! आप ऐसी अनुचित कर्णकटु बातें सुना रहे हैं जो निम्नश्रेणी का पुरुष भी अपनी निम्नकोटि की स्त्री से कहते समय संकोच करता है। आज आप मुझ पर ही नहीं, समुचित स्त्री जाति के चरित्र पर सन्देह कर रहे हैं। रावण के शरीर से जो मेरे शरीर का स्पर्श हुआ है, उसमें मेरी विवशता ही कारण थी, मेरी इच्छा नहीं। जब आपने मेरी खोज लेने के लिये लंका में हनुमान को भेजा था, उसी समय आपने मुझे क्यों नहीं त्याग दिया? 

 इतना कहते-कहते सीता का कण्ठ अवरुद्ध हो गया। फिर वे लक्ष्मण से बोलीं, सुमित्रानन्दन! मेरे लिये चिता तैयार कर दो। मैं मिथ्या कलंक से कलंकित होकर जीवित नहीं रहना चाहती। मेरे स्वामी ने भरी सभा में मेरा परित्याग किया है, इसलिये अग्नि प्रवेश ही मेरे लिये उचित मार्ग है। 

 लक्ष्मण ने दुःखी होकर श्रीराम की ओर देखा और उनका स्पष्ट संकेत पाकर उन्होंने चिता तैयार की। श्रीराम की प्रलयकारी मुख-मुद्रा देखकर कोई भी उन्हें समझाने का साहस न कर सका। सीता ने चिता की परिक्रमा करके और राम, देवताओं तथा ब्राह्मणों को प्रणाम करके यह कहते हुये चिता में प्रवेश किया, यदि मेरा हृदय कभी एक क्षण के लिये भी श्री रघुनाथ जी से दूर न हुआ हो तो सम्पूर्ण संसार के साक्षी अग्निदेव मेरी रक्षा करें। 

 वैदेही को अग्नि में प्रवेश करते देख सभी उपस्थित वानर और राक्षस हाहाकार करने लगे। तभी ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वरुण सहित अने देवताओं ने श्रीराम के पास आकर कहा, श्रीराम! आप ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, फिर इस समय आग मे गिरी हुई सीता के उपेक्षा कैसे कर रहे हैं? आज आप यह साधारण अज्ञानी मनुष्यों जैसा आचरण क्यों कर रहे हैं? 

 इसी समय मूर्तिमान अग्निदेव वैदेही सीता को चिता में से लेकर उठ खड़े हुये। उस समय सीता जी प्रातःकालीन सूर्य की भाँति कान्तियु्क्त प्रतीत हो रही थीं। अग्नि ने रघुनाथ जी को सीता को सौंपते हुये कहा, श्रीराम! आपकी पत्नी सीता परम पतिव्रता है। इसमें कोई पाप या दोष नहीं है, इसे स्वीकार करें। 

 अग्निदेव के वचन सुनकर श्रीराम ने प्रसन्नतापूर्वक सीता को स्वीकार करते हुये कहा, मैं जानता हूँ, सीता बिल्कुल पवित्र है। लोगों को इनकी पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिये मुझे यह परीक्षा लेनी पड़ी। आप सब लोग मेरे हितैषी हैं। इसीलिये कष्ट उठाकर इस समय यहाँ पधारे हैं। 

 राम के वचन सुनकर महादेव जी बोले, श्रीराम! दुष्ट-दलन का कार्य सम्पन्न हुआ। अब आपको शीघ्र अयोध्या लौटकर माताओं, भरत, पुरवासियों आदि की व्याकुल प्रतीक्षा की घड़ियों को समाप्त करना चाहिये। देखो, सामने आपके पिता दशरथ जी विमान में विराजमान हैं।

 महादेव जी की यह बात सुन कर लक्ष्मण सहित रामचन्द्र जी ने विमान में अपने पिता को बैठा देखकर उन्हें सादर प्रणाम किया। महाराज दशरथ ने उन्हे आशीर्वाद देकर स्वर्ग को प्रस्थान किया।

 दशरथ के विदा होने पर देवराज इन्द्र ने कहा, हे रघुनाथ! तुमने राक्षसों का संहार करके आज देवताओं को निर्भय कर दिया। इसलिये मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, वरदान मुझसे माँग लो।

 इन्द्र को प्रसन्न देख श्रीराम बोले, हे देवराज! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी प्रार्थना है कि मेरे लिये पराक्रम करते हुये वानरादि जो वीर यमलोक को चले गये हैं, उन्हें नवजीवन प्रदान कर पुनः जीवित कर दें और वे पूर्णतया स्वस्थ होकर मुझसे मिलें।

 इन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम की इच्छा पूरी कर दी।

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